नदी... | अर्पण कुमार
नदी... | अर्पण कुमार

नदी… | अर्पण कुमार

नदी… | अर्पण कुमार

न मिले नदी का समर्पण
मगर मिल जाए
नदी का साहचर्य
काफी है इतना
मेरे पथिक को

जरूरी नहीं कि
नदी मुझे बहाए
अपने संग,
मैं फकत यह चाहता हूँ
कि वह अपने निविड़ एकांत में
सुनसान पथों पर
सिर्फ मुझे सोचे
और बहती हुई अपनी गति से
थम जाए उतनी देर
मेरी याद में,
अपने चरम उफान में
और अपनी प्रकृति से परे

READ  आकाश एक मसान है | कुमार मंगलम

नदी में घुस पड़ना
यूँ ही बेमतलब
समय-कुसमय
निरे अयाचित, अमर्यादित ढंग से
नहीं है कोई हासिल
मेरी राय में
किसी पुरुष का
बेहतर है
बूँद-बूँद जी सकूँ मैं नदी का
अपनी प्रवहमान आत्म-चेतना में
उसकी जल-राशि को
अपने तईं गँदला किए बगैर
उसके तटों पर चहलकदमी करता
शांत और निरावेग मन से
और एक जीती-जागती नदी
उतर आए मेरे अंदर
अपनी समस्त ऊर्जा और
क्षिप्रता के साथ
पूरे हक से
अपनी शुचिता और गरिमा को
खंडित किए बगैर
कहीं किसी कोण से भी;
आखिर यह भी तो
उपलब्धि ही है
प्रेम की
कदाचित कुछ अधिक तरल
सुवासित और कल्पित
अपनी अतृप्त हूक में भी

READ  कवि का स्वप्न | पर्सी बिश शेली

नहीं चाहिए मुझे
नदी का प्रकट, इकहरा और
बेमानी समर्पण
हाँ अगर किसी भाँति योग्य
ठहरता हूँ और नदी उचित समझे
तो मिल जाए मुझे
उसकी गोपन, इंद्रधनुषी और
उत्सुक परिव्याप्ति ही

बेशक
नदी मेरी ओर न बहे
मगर रहे
मेरे आस-पास
काफी है इतना
मेरी चिर और मानिनी
तृष्णा के निमित्त

READ  इस पार, उस पार | हरिवंशराय बच्चन

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *