दिवस का गीत | अरविंद राही

दिवस का गीत | अरविंद राही

किस उलझन में खोए साथी
जीवन का संगीत भुला के
तुम क्यों मेरे गीत न गाते।

बिखर रही अरुणाई पूरब
लगता कोई जाग रहा है
जिसके आने की आहट से
दूर अँधेरा भाग रहा है
तम से, अपना ध्यान हटाकर
क्यों ना कलरव गान सुनाते।

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सप्त अश्व से सज्जित रथ चढ़
नभ से सूरज झाँक रहा है
सतरंगी रवि-रश्मि रंगोली
भरकर नभ में टाँक रहा है
सात सुरों की लेकर बंदनवार
नहीं क्यों प्रात सजाते।

साथ समय के चलते-चलते
आ पहुँचा दिनमान शिखर पर
और किया सर्वस्व निछावर
दमक रहा अभिमान निखरकर
ऐसे दानी के आगे तुम
क्यों ना अपना शीश झुकाते।

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होते ही अवसान दिवस का
हुआ समीरण मंगल गाते
गाँव-गली, घर-आँगन गूँजा
बस जीवन की कथा सुनाते
सुधबुध क्यों बिसराए साथी
साँझ ढली, कुछ गीत सुनाते।

भोर-दुपहरी-संध्या बीती
बीता दिवस, रवानी छाई
सजे स्वप्न फिर से पलकों पर
देखो रात सुहानी आई
इस नीरवता में संसृति का
क्यों ना कोई खेल रचाते।

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अंतिम प्रहर निशा, तुम व्याकुल
और अभी तक सो ना पाए
कुछ पल में फूटेगी लाली
दूर क्षितिज पर भोर सजाए
क्यों ना बाहर आ उलझन से
जीवन का संगीत सजाते।