तैयारी | अभिज्ञात
तैयारी | अभिज्ञात

तैयारी | अभिज्ञात

तैयारी | अभिज्ञात

कपड़े तैयार थे
एकदम धुलधुलाकर
इस्तिरी होकर
उनको देखो तो वे जैसे कह उठें
आओ चलें
और फिर सहसा जाना हुआ
मुझे
लगा सुन ली गई है कपड़ों की

उन्हीं के इशारे पर
हो रही है कूच

उन्हीं का किया-धरा है सब कुछ
तबादला इस शहर से
उधर जहाँ कोई और है
अपरिचित शहर में मेरा इंतजार करता सा

फिर उसके बाद

नए शहर को
जब मैं कर चला पुराना
डरने लगा
कपड़ों की धज से

READ  नज़र-ए-अलीगढ़ | असरारुल हक़ मजाज़

उनका साफ होना एक साथ
होना इस्तिरी
रखा जाना किसी आलमारी या सूटकेस में
डराने लगा
जैसे कि वे कर बैठेंगे कोई गुप्त मंत्रणा

उनका साथ होना
किसी खतरे के इशारे सा लगने लगा

मैं डरता हूँ
कपड़ों के किसी विशेष इशारे की झंडी होने से

दरअसल मैं
हर चीज के झंडी होने के खिलाफ हूँ

यह क्या कि कोई खो दे अपने होने को
और हो जाए कोई और संदेश
कोई इशारा
और उसका होना
बदल जाए न होने में

READ  सत्य कोयले की खदान में लगी आग है | बाबुषा कोहली

यह सब सोचते हुए
मैं बचना चाहता हूँ
खुद अपने-आपको
कुछ और समझने से
समझने से ज्यादा
मानने से

मैं किसी और की रूह
और की देह
और की बात
होने से इनकार करता हूँ
जो कि मैं
अंततः हूँ शायद

और इसी इनकार और स्वीकार के बीच
कहीं किसी बिंदु पर
मेरा होना ही मेरा न होना और
न होना ही मेरा होना

READ  जंगल के राजा चुने नहीं जाते

आदमी कपड़ों की भाषा
शायद इसलिए समझता है
कि किसी अर्थ में
मानवीय नियति के ही हिस्से हैं कपास
उसके बने सूत
या फिर वह कंबल
जिसकी बात कहते हैं कबीर

कपड़े हमेशा
अपने होने व न होने के बीच
एक ऐसा फासला रखते हैं
जहाँ से हमें मिलती रहती है
किसी न किसी अनंत यात्रा की आहट।

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *