समस्त रचनाओं का सार हो तुम | अंकिता रासुरी
समस्त रचनाओं का सार हो तुम | अंकिता रासुरी

समस्त रचनाओं का सार हो तुम | अंकिता रासुरी

समस्त रचनाओं का सार हो तुम | अंकिता रासुरी

बरसात की आधी रात में खिड़की से बाहर झाँकते हुए
मैंने जाना कि ठंडक कितना सुकून दे जाती है
हवाएँ रह-रह कर देह को सहलाती रहीं
और ये रास्ता है मेरे भीतर प्रवेश का
मैं सच में किसी नई दिशा में उन्मुख हो रही हूँ
कोहरा बादलों में उड़ने का एहसास कराता है तब
जब मैं तेरी कल्पनाओं में डूबी होती हूँ चोरी छिपे
जो प्रेम मैं गुलदाउदी पर लुटाती थी कभी
अब वो तुम पर लुटा देने का मन है
खैर गुलदाउदी को तो मैं बंद किताबों में रख देती थी
महर तुम्हें तो हर क्षण स्वतंत्र हवाओं का महसूस करना चाहती हूँ
चाहती हूँ तुम प्राण वायु बन जाओ
नदियों के पानी को निहारते-निहारते शून्य में ठहर जाती थी जिस तरह
घने बस जंगल के सुनसान मंदिर की घंटियाँ कर जाती थीं जैसे चंचल
लहलहाती सारियाँ भी तो सब-कुछ बिसरा देती थीं
पंख फैलाए तितलियाँ, दाना चुगती गौरेया
नाचते मोरों की सुखद कल्पना की अनुभूति
मैंने तो यहाँ तक सुना है कि
हुसैन की पेंटिंग्स, टैगोर की कविताएँ, डंकन का नृत्य
कलाओं को जानने का रास्ता है
मगर इन सब का आनंद तो मुझे तुम्हारे एक स्पर्श में ही मिल जाता है
तो मुझे इन सब की क्या जरूरत
प्रकृति की समस्त रचनाओं का सार तो तुम हो

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