उसने कहा “आज तो रुको।”

वो बोला “नहीं आज नहीं।”

“क्यों क्या हुआ है, अभी तो सवेरा भी नहीं हुआ है।”

“बस ऐसे ही!” उसने सिगरेट सुलगाई, शर्ट उठाई, और धीरे से बोला, “सवेरा तो नहीं हुआ है, पर मन में कैक्टस से कोई चुभो रहा है।”

“तुम्हारे कमरे में घुटन सी हो रही है, आओ छत पर चले।”

वो बोली “ऐसे?”

उसने एक वितृष्णा सी हँसी-हँसी, अब और कोई भी होगा क्या, तुम्हारी पीठ देखने के लिए।”

“सुनो, यहीं बैठकर बात करो न।”

वो बोला “न, अब नहीं, अब या तो छत पर चलो, या फिर मुझे जाने दो, ये जो छन-छन कर चाँदनी आ रही है, वह धूप के जैसी जला रही है, तुम वह नहीं हो, और मेरी प्यास भी नहीं हो, बस यूँ ही हो, तुम्हारे देह के उभार भी मेरे दिल से उसे नहीं निकाल पा रहे हैं, तभी ये चाँदनी, धूप बन कर जला रही है, चाँद को नजदीक से देखूँ तो शायद इस भ्रम से बाहर निकल सकूँ।”

वो बोली “नहीं, फिर तुम जाओ, चंपा को गुलाब मन समझ कर ग्रहण करोगे, तो कैक्टस ही चंपा लगेगी।”

“नहीं, सुनो, अपना तिल तो दिखाओ।”

“वो तो तुमने ही हटा दिया था।”

“उहनू”, वो चादर हटाते हुए बोला “धत, चल झूठी।”

उसने अपने बाल हटाते हुए कहा “न, सच कह रही हूँ, रात को ही तुमने हटाया था, वो जो कल मैं नया नेलपॉलिश रिमूवर लाई थी।”

“देखा, आज फिर वह चली गई।”

“फिर से छुआ, और चली गई” वह उठा और खिड़की से छन कर आ रही चाँदनी से लड़ने का असफल प्रयास किया, “मुझे बख्श दो, चाँदनी जाओ, आज तुम्हारे पास कोई बादल नहीं है, जाओ।”

“और तुम क्या बेशर्मों की तरह सो रही हो, उठो।”

“क्या करूँ मैं?”

“कुछ और नहीं, तो मुझे उसकी याद ही दिलाओ।”

“क्यों?”

“क्या तुम्हें पता नहीं?”

“नहीं, ये हमारे रिश्ते की शर्त नहीं थी।”

“नहीं थी?” उसने उसकी गर्दन पर अपनी उँगलियाँ गड़ाते हुए कहा।

“पर मैं ऐसा ही हूँ, तुम वह नहीं हो सकती हो, वो आ नहीं सकती है, मेरी बाँहों की उसकी आदत है।”

मेरी देह को उसकी गंध पसंद है, तुमने डीओ भी नहीं लगाया था, उसके वाला, अब क्या करूँ? कैसे उसे हटाऊँ?”

“तुम मेरी बिलकुल भी मदद नहीं करती हो।”

अपने शरीर पर एक झीनी सी चादर उसने लपेटी, जिससे उसके हर अंग पर चाँदनी भी अधिकारपूर्वक आ जा सकती थी, और उससे कहा “चलो छत पर चलते हैं।”

उसने उसे लगभग समेट सा लिया, और अपनी बाँहों में उठाया, वह झीनी चादर कहीं छिप गई और उसके शरीर की परछाईं लगभग उसके शरीर पर छा गई। अँधेरे में जैसे दो बिल्लियाँ आतुर होकर एक दूसरे से चिपक रही थी, वैसे ही इन दोनों की देह एक दूसरे पर छा रही थी।

छत पर जाकर हरसिंगार के फूलों से वह उसका सिंगार करने लगा। हरसिंगार के फूल अभी खिले नहीं थे, हलके-हलके से खिल रहे थे, पर उनसे निकलने वाली मादक सुगंध से जब साँप खिंच आ रहे थे, तो वे कैसे इसके मोह से वंचित रह जाते।

एक-एक हरसिंगार के फूल को वह अपने होंठों पर लाता, उसका नाम पुकारता और उसके शरीर पर पड़ी झीनी चादर पर रख देता। वह झीनी चादर एक समय में एकदम से सफेद और केसरिया हो गई।

“अरे, वह क्या है?”

“सुनो, आओ न।”

“नहीं, देखो तुम्हारा तिल भी नहीं है, तुमने ही कहा था न, तुम उसकी याद कभी भी न आने दोगी।”

“तुमने ही तो तिल हटाया था।”

“पर तुमने मना क्यों नहीं किया।”

“अच्छा, सुनो, अपने बाल तो हटाओ।”

“तुम्हीं हटा दो, और कहकर पलट गई, झीनी सी चादर एकदम से उसके बदन से हट गई।”

छत की एक ओर तो कहीं बिल्ली अँधेरे में कुत्ते से डर रही थी, सहम रही थी, कबूतर बिल्ली से बच रहे थे, नीम के पेड़ से निंबोरी भी गिर रही थी, और उनकी कोटरों में बैठे कठफोड़वे भी जैसे इस रात के बीतने का इंतजार कर रहे थे। हवा का झोंका आया, और गुलमोहर की एक शाखा को हिला गया, अब बदन एकदम हरा हो गया, गुलमोहर के नीचे लेटी नताशा, हाँ, वह उसे नताशा के नाम से ही बुलाता था, उसका अपना नाम क्या रहा होगा, उहूँ, क्या फर्क पड़ता है, नाम से। ओस भी गिरने लगी थी, बदन पर अब चादर फिर आ गई थी और ओस से भीगने लगी थी। नीम के पेड़ पर पड़ा झूला भी हिलने लगा था। और वह अब ओस से भीगे हुए बदन पर रात की रानी के अधखिले फूल सजाने लगा था।

नाभि पर रात की रानी का फूल रख कर उसे चूमते हुए कहा “सुनो, नताशा, मैंने तुम्हें बहुत दुख दिया है, अब मैं कोई दुख न दूँगा।”

“सुनो, तुम्हारी पीड़ा के आगे तो मेरा यह दर्द कुछ भी नहीं है, मैं तुम्हें इस दर्द में जलते हुए नहीं देख सकती हूँ, तुम अपने शरीर से उसकी छुअन को हटाने के लिए कितनी बार नहाते हो?, डीओ लगाते हो, दिन भर टालकम पाउडर लगाते हो, तुम्हें पता कल तुम कितनी बार नहाए थे?”

“पता नहीं, यार, बस लगता है वह चली जाए, मेरे दिल से, दिमाग से, और मेरी देह के हर कोण पर उसने जैसे अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया है, वह ससुरी जाती ही नहीं है, आँखों से निकालता हूँ, तो गाल पर चिकोटी काटती हुई आ जाती है।”

हम्म, तभी फिर से एक झोंका आया और रात की रानी के फूल भी उड़ गए, और चादर फिर से अकेली रह गई। चाँदनी फिर से आने लगी, उसने उसकी टाँगों को छूते हुए कहा, पता नताशा, उसकी ही टाँगे इतनी उजली थी, इतनी ही, जैसे दूधिया चाँदनी होती है, और उसकी कमर, मेरी हथेलियों में समा जाती थी, वह मुझसे दूर नहीं जा सकती थी, मेरे सीने पर अपना सर रखती थी, और फिर मुझे हलके से सहलाती थी, और धीरे से कहीं इतनी अंदर चली जाती थी, जहाँ तक मैं भी नहीं जा पाया हूँ, उसकी पतली पतली उँगलियाँ जब मेरे बालों में कुछ निशाँ बनाती थी तो ऐसा लगता था कहीं से मारीच की खोज में कोई आ गया हो।”

“हाँ, तुम्हारी टाँगे, उतनी उजली नहीं है, पर चलो,” उसके होंठों पर सिगरेट फिर आ गई थी, चाँदनी रात में वह धुएँ के छल्ले उछाल रहा था, पर लग रहा था एक सिगरेट उसके अंदर भी सुलग रही थी। वह धुएँ से लड़ने की कोशिश करने लगा, “तुम ही तो थे, जिसने उसे छुआ था, तुम जाओ, वो मेरी है।”

अब तक वह करवट बदल चुकी थी, और उठने की कोशिश करने लगी थी। उसने आकर उसे पीछे से पकड़ लिया “देखा, तुम भी जा रही हो, उसके जाने के बाद तुम भी चली जाओगी?”

उसने कुछ नहीं कहा, बस हरसिंगार समेटने लगी। उसके शरीर के कई अंग इस समय चाँदनी में साफ दिख रहे थे। उसने उस झीनी सी चादर में वे सारे हरसिंगार समेट लिए, जो उसने उसके अंगों पर रखे थे। और पास में रखी बाल्टी में डाल दिए। उसने ये देखकर गुस्से में दाँत किटकिटाए, “कितना मना किया है तुम्हें, ये सब न किया करो।” सुनो, इधर देखो, फेंको ये फूल, फेंको, मैं कहता हूँ फेंको।”

“नहीं सुनोगी तुम?”

उसने हाथ पकड़ा। “नहीं मैं सुबह इसी से नहाऊँगी और तुम्हें खुद में समाऊँगी, तुम मुझसे ये हक नहीं छीन सकते, तुमने कहा, मैं उसका नाम रखूँ, मैंने रख लिया, तुमने कहा उसके जैसे बाल बनाओ, मैंने बना लिए, तुमने कहा उसकी गोलाइयाँ भी अलग हैं, मैंने वह भी कर ली, और फिर तुमने ये भी कहा कि तुम मेरे नहीं हो, मैंने वह भी माना, पर तुम मुझे खुद को तुम्हें मुझमें लेने से रोक नहीं सकते।”

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“मैं केवल उसी का हूँ, सुना तुमने, केवल उसी का, और ये तुमने अगर पानी लिया तो मैं तुम्हें कभी भी नहीं छुऊँगा।”

“मत छुओ, वैसे भी तुम मुझे कहाँ छूते हो? तुम तो केवल ‘नताशा’ को छूते हो।”

“याद करो, तुमने मेरी देह को चंपा बताया था, और जब तुमने उसे देखा तो कैसे कहा था, हाँ, नताशा के यहाँ तिल था, यहाँ बारीक तिल था, तो बाजू में नीचे की ओर लाल रंग का मस्सा था।”

“कूल्हे पर कहाँ पर तिल था, कहाँ पर उसकी त्वचा चंपई थी, कैसे तुम्हें सब याद था।”

ऐसे में जाने कैसे एक चमगादड़ की चीं-चीं से उसकी बची-खुची चादर भी उसके शरीर से हट गई, और फिर से उसकी परछाईं बादलों की ओट में गए चाँद के कारण अनावृत होने से बच गई। इससे पहले चाँद बादलों की ओट से बाहर आता, वह जुगनू से भी जैसे खुद को छिपाने लगी। सिगरेट के जैसे सुलगने लगी, चादर उठाई, और चाँद के बाहर आने से पहले उसने चादर को अपने ऊपर तह सा कर लिया।

“मेरे शरीर में दोनों उभारों के बीच में कितनी दूरी है, ये तक तुमने नताशा के अनुसार कर दिया है, तुम कौन से उभार में कितनी देर के लिए जाओगे, ये सब तुम्हीं ने तय किया है? मैं हूँ ही कहाँ? हर ओर तो नताशा है?, मेरे दाँतों को भी गिनने लगे थे तुम उस दिन, याद करो” और उसकी साँस फूलने लगती है। और वह गिरने लगती है, वह नहीं थामता, सिगरेट के छल्ले उड़ा रहा है। “सुनो, ये मैंने तुम्हें बताया था, नताशा मेरे जीवन से जुड़ी है, वह मेरी है, हाँ, वह मुझे छोड़कर चली गई है, पर है तो मेरी न, मैंने उसे बनाया है, वह मेरा चरित्र है।”

जैसे ये सिगरेट के छल्ले उड़ रहे हैं, न वैसे ही वह मेरे इशारों पर कभी उड़ती थी, मैं उसे अपनी बाँहों में लेकर रॉबर्ट ब्राउनिंग की कविताओं पर डांस करता था –

I and my mistress, side by side

shall be together, breathe and ride,

so, one day more am I deified.

Who knows but the world may end to-night?

“मैं गाता, क्या पता दुनिया आज ही खत्म हो जाए, कल आए ही नहीं।”

सुनो, फूल फेंको।”

“नहीं, अरे देखों हठ मत करो।”

“सुना नहीं, तुम भी नताशा बन गई हो, जिद्दी, ढीठ।”

बीच-बीच में उल्लू भी नताशा को डरा रहे थे, हवा के झोंकों से नीम की पत्तियाँ भी शोर कर रही थी।

“देखों, नताशा तुम मेरी नताशा नहीं हो, नहीं हो तुम, मैं उसका हूँ, तुम मुझे नहीं खुद में समा सकती हो।” वो पागल जैसा इधर-उधर जाता है, “नहीं-नहीं, मैं केवल उसी का हूँ, तुम्हारा नहीं हूँ, मैं कहता हूँ हटाओ फूलों को?” अपने हाथ से फूल लेकर फेंक देता है, और छत पर चाँद भी इसे नहीं देख पाता, वह भी फिर से बादलों में चला जाता है। एक बार फिर केवल जुगनू का उजाला रह जाता है।

“तुम्हें मना किया है न, फिर भी तुम, मैं केवल एक ही नताशा का हूँ, उसकी चादर में खुद को लपेटते हुए कहता है। फिर से छत पर चाँदनी छाने लगी है, परछाईं एक होने लगी है…”

“तुम्हारी बाजू कितने कोमल है, नताशा के नहीं थे, तुम एकदम मैदा की लोई जैसी कोमल हो, वह आटे जैसी थी, लेकिन गोरी बहुत थी, तुम नहीं हो।”

नताशा, मेरी नताशा, तुम्हें पता, तुम्हारी पीठ पर जब भी मैं अपने होंठ रखता हूँ, तो मैं उसका वह जला हुआ निशाँ खोजता हूँ, जो मैंने हलके से सिगरेट से लगा दिया था, और उसने सर माथ पर रख दिया था। चादर हटाता है… “लेकिन तुम्हारी पीठ कैसे बेदाग है, ये क्यों बेदाग है, उसने क्या अपराध किया था? जो मैंने उसे जलाया, जला तो तुम मुझे रही हो, ये बेदाग पीठ दिखाकर, तुम्हें इतना कोमल होने का अधिकार नहीं है।”

वह चुप रहती है, मौन प्रतिकार करती है। “अब छोड़ो भी, देखो, जुगनू शांत होने लगे हैं, कभी भी उजाला हो जाएगा, अब जाने दो, मुझे मेरे कोने में जाने दो।”

“चलो।”

दो परछाइयाँ फिर से चलने लगती हैं, और पीछे से हरसिंगार, रात की रानी और चंपा भी हवा के साथ बिखर जाते हैं, जैसे वे कल के लिए सेज बिछाने का इंतजार कर रहे हों।

धीरे-धीरे पूरब के कोने से किरणें उगने लगीं, पूरे गगन पर पहले स्वर्ण आभा और उसके बाद जैसे सोने को चीर कर चाँदी की किरणें फैलने को उत्सुक हो गई। गगन पर हलचल होने लगी। अभी तक जहाँ पर चाँदनी का साम्राज्य था अब धूप का हो गया। कैक्टस के फूल खिलने लगे और रात की रानी की सुगंध कहीं खोने लगी। अब चिड़िया आ गई थी उस गुलमोहर पर जिसने कल उसे अपनी पत्तियों से ढका था। अब धीरे-धीरे पत्ते बिखरने लगे थे। उसने भी कमरे में आकर अपनी कमीज पहनी, और जाने के लिए तैयार हो गया। वो बोली “सुनो, नाश्ता नहीं करोगे।”

उसने कहा “नहीं, आज शूट के दौरान ही खा लूँगा, तुम अपना ध्यान रखना।”

अब तक वह भी नहा कर आ चुकी थी। उसने घुटनों तक स्कर्ट पहनी थी, चंपई टाँगे धुलने के बाद और भी सुंदर लगने लगी थी, ऊपर ढीला-ढाला टॉप, बेपरवाह से बाल थे। वो पास आया “सुनो, यहाँ आओ।”

वह आई, “आज ऑफिस से जरा जल्दी आओगी न?, मैं भी शूट से जल्दी आऊँगा।”

उसने सर हिला दिया,

शूट पर जाता हुआ, वह, उसे आप कुछ भी समझ लें, कुछ भी नाम दे दें, मेरा नायक है, जिसकी गढ़ी गई नताशा उसे छोड़कर चली गई है, और एक नताशा वह गढ़ रहा है। लीवाइस की जींस पहने है, बेनेटन की टीशर्ट पहले वह महँगे डियो का शौकीन है, पर आजकल केवल उसे वही डियो पसंद आ रहे हैं, जो उसकी पसंद के नहीं थे, आजकल उसे हर बात पर लड़ने का शौक हो गया है। संशय उसकी रग-रग का हिस्सा हो गया है। उसके अंग-अंग से जैसे आजकल सर्प लिपटे रहते हैं। कंबख्त जब से उसे नताशा छोड़कर गई है, लेकिन क्या करे, चित्र बनाते-बनाते उनमें रंग भरते-भरते कब वह जीवन में चरित्रों में रंग भरने लगा था उसे भी नहीं पता चला था। हर बार एक नए चेहरे के साथ जुड़ता था, उनके देह के कोण को अपनी कूची से नए आयाम देता था, कैसे उनके चेहरे से खुद को दूर से ही बाँध लेता था। नताशा भी थी, कैसे उसकी जिंदगी में बिना कहे आ गई थी। बाँध नहीं पाया था था खुद को। गोरे रंग की नताशा की देह के हर निशान उसके जीवन का हिस्सा बन गए थे। नताशा के आने के बाद उसे जीवन से भय लगने लगा था, उसे अपने आप से भय लगने लगा था, खुद को और नताशा को वह लोगों से छिपाने लगा था। बूँद-बूँद नताशा को पीता था, और फिर उसे छूकर देखता था, अरे मैली तो नहीं हो गई, अपने हर चुंबन के बाद हर उस अंग विशेष को प्रतिक्रिया फलस्वरूप देखता। पता नहीं वह कैसे नशे में हो गया था।

नायक रंग भरते-भरते चरित्र में खुद को समाहित कर चुका था। उसे पता ही नहीं चला था कब नताशा की देह के हर कोने से अपनी देह के कोनों को जोड़ चुका था और अब हर लड़की में उसे नताशा दिखने लगी थी। उसका बेदाग शरीर उसे शर्मिंदा करता था, उसे वह स्वयं का उपहास करता सा लगता था, जैसे ही वह अपना चेहरा उसके पास ले जाता, उसमें उस रूप का सामना कर पाने की क्षमता कम होने लगती, पर वह नताशा का प्रेमी था, प्रेयस था। उसकी हथेलियों में नताशा ही नताशा थी, उसके हर शूट में नताशा थी, उसके कैनवास में नताशा थी, और वह पागल था नताशा के लिए। उसके अस्तित्व का एक हिस्सा थी नताशा। पर न जाने क्यों, एक दिन कहीं चली गई, उसे बिना बताए, नताशा के बिना जैसे वह अस्तित्वहीन सा हो गया, न उसके रंगों में रंग बचे, चित्रों से रंग चले गए। उसके जीवन से चंपई रंग जैसे गायब ही हो गया। रंगहीन जीवन में उसने रंग लाने की कोशिश की, रोज नई नताशा बनाता, जैसे ही उनके शरीर पर नताशा के तिल उभरने लगते, उसे वितृष्णा होने लगती, वह तिल के साथ नई नताशाओं को भी छोड़कर भाग आता, उसे पलायन भाने लगा था।

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जैसे सूरज छिप जाता था वैसे ही वह भी छिप जाता था, अपने पलायन और नैराश्य के बादलों में। उसका हृदय निरंतर विद्रोह करता था पर देह को उसी की गंध पसंद थी, वह अपनी देह पर से उसके निशान छुटाने के लिए रोज ही नहाता, पर जितनी भी बार नहाता, उसकी देह उसे नताशा के और पास कर देती, वह खुरचता पर जैसे ही उसकी खुरच से त्वचा की एक भी परत खुलती वह उसे नताशा के और नजदीक कर देती, ऐसा क्या था? नताशा ने उसे अस्तित्वहीन कर दिया था। पर वह क्या करे? नताशा उसके जीवन पर अमरबेल की तरह छा गई थी, वह अब कुछ नहीं था। उसने खुद को नताशा के ही रूप में ढालने का प्रयास किया। एक नई नताशा फिर बनाए, अब वह उसकी नई नताशा थी। नताशा के अनुसार ही उसके उसकी देह के हर कोने को बनाया। उसकी देह में कितने कोण थे, कितने कोने थे, कितने तिल थे, कहाँ मस्सा था, सब कुछ उसने अपनी नई नताशा में बनाया। हर रात वह उसके शरीर पर तिल बनाता, उसकी टाँगों और बाँहों में तिल बनाता, गर्दन के नीचे वाला काला गहरा तिल उसे बहुत पसंद था, जैसे ही नताशा अपने घुँघराले बाल हटाती थी, उसका वह तिल उसे आमंत्रण देता हुआ लगता था। आखिर वह तिल, नायक हर रात को अपनी इस नताशा के बनाता, और फिर उसे चूमता और इस तरह अंदर तक लेने की कोशिश करता जैसे वह तिल के रूप में उस जहर को पी रहा हो जो उसे नताशा देकर गई है, फिर जब थक कर निढाल हो जाता तो एक घृणा के रूप में उसे मिटा देता, इस कदर मिटा देता कि गर्दन पूरी तरह लाल हो जाती।

पर नताशा गई क्यों थी और ये नताशा उसके साथ क्यों थी? ये एक तिलिस्म था, शक और संदेह का तिलिस्म है जो उसने गढ़ लिया था, और जिससे इस नकली नताशा उसे बाहर निकाल कर लाई है, उसे सहज बनाया है, उसकी देह के अँधेरों को निकालते-निकालते वह खुद ही संदेह और शक से बाहर निकल आया है, इस निस्वार्थ समर्पण ने ऐसा बदल दिया है नायक को कि उसे स्वयं भी यकीन नहीं आता। अब शायद वे दोनों ही ओस की पहली बूँद की तरह हो चुके हैं। मेरा नायक, एक बार फिर से पूरे दिन रंगों और शूट से मारामारी करने के बाद, अपनी नताशा के पास जाने के लिए आतुर हो रहा है। उसे पता है ये नताशा की प्रतिछाया है पर, है तो सही पर है तो उसका ही निर्माण, उसका ही सृजन, उसकी ही कृति। जैसी मूल नताशा थी। नताशा उसके दिमाग का ही हिस्सा थी। आज भी नताशा का मनपसंद चाइनीज भोजन खरीद कर वह जा रहा है, अपनी नई नताशा के पास।

पता नहीं उसके मन में क्या है?, वह स्वयं को उसके लिए क्यों मिटा रही है, ये तो उसे भी नहीं पता था, खैर, चलिए नायक के संग चलते हैं कि उसकी नई नताशा उसके साथ आज क्या करेगी? उसने आज रात को भी उसके साथ भला नहीं किया था, पर क्या करें वह ऐसा ही है? उसके जीवन में रस कई हैं, पर प्रेम तो उसने नताशा से ही किया था, ठीक है नताशा उसे छोड़कर चली गई तो क्या करे वह, ऐसे ही किसी को नताशा की जगह दे दे, उसे नताशा को अपनी स्मृतियों से खरोच कर फेंकना भी है और उसे नताशा को याद भी रखना है, क्या करे वह? वह हारता जा रहा है। उसकी मुट्ठियाँ भींच जाती है, जब वह नताशा को सोचता है, अपने मन में लड़ता है, पर जीत नहीं पाता है, उसे नताशा चाहिए भी और नहीं भी, इसी अंतर्द्वंद्व में फँसा रह जाता है। उसके पास इस नताशा के घर के दरवाजे की चाबी है, इस एक कमरे के घर में वह अकेली रहती है, पर आज तो उसे दरवाजा खोलने की जरूरत नहीं पड़ी, दरवाजा खुला था और वह आराम से अंदर आ गया। बिस्तर पर तह करी हुई वह झीनी चादर रखी थी जिसे ओढ़कर वह उसे प्रेम करती है, जिसकी तहों के बीच में वह उसकी नताशा बन जाती है। वहीं पास में काजल और आईलाइनर रखा हुआ है, जिससे वह उसके शरीर पर तिल बनाता था।

उसका जीवन जैसे इसी कमरे में घिर कर रह गया था, वह उसे इस कमरे में कितना सुकून मिलता था। धीरे से जब वह साँकल बंद करता था, और नताशा के करीब आता था तो जैसे अपने अस्तित्व से ही कुछ टूटता हुआ सा उसे अनुभव होता था। इस छोटे कमरे में उसके सभी रंग अपनी नई परिभाषा पाते थे और इस कमरे से बाहर निकलते ही बिखर जाते थे। अपने आप ही रोज नई तस्वीर बनाते थे, उसका कैमरा भी उनके चित्रों को अपने ही नए कोणों से खींचता था। वो जैसे ही नताशा की देह को अपनी देह के नजदीक लाता, परदे अपने आप ही गिर जाते और कैमरे के बटन अपने आप ही उनदोनों के प्रेम के चित्र लेने का प्रयास करते। वह उस चादर जैसी ही एक और चादर कैमरे पर डाल देती जिससे सब कुछ धुँधला आए। उसका चेहरा न आए, वो कुछ कहता तो कहती “तुम नताशा के साथ हो, जो एक भ्रम है, उसकी तस्वीर लेने का क्या, उस दिन कैमरे पर कोई चादर नहीं होगे जब तुम्हारी खुद की नताशा होगी तुम्हारे साथ”, नेपथ्य में अँग्रेजी गाना चलता है “I don’t know who you are, what you do, from where you are, as long as you love me” माने, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता तुम कौन हो, क्या करते हो, कहाँ से हो, जब तक मुझे तुम प्यार करते हो।”

पर आज इतना मौन क्यों पसरा है, इस कमरे में, जाने कौन सा अशुभ सा आश्चर्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। नताशा कहाँ है, कैमरा भी पूछ रहा है, अरे नताशा कहाँ हो तुम? मुझे तुम दोनों की धुँधली तस्वीर निकालनी है, कहाँ हो तुम? नायक भी पागल हो रहा है, “नहीं, अब तुम नहीं जा सकती हो, मुझे छोड़कर, बहुत मुश्किल से सम्हाला हूँ, अब नहीं” मोबाइल पर संदेश आ रहे थे ढेर सारे, घंटी बज रही थी, कैमरा भी व्याकुल हो रहा था। परदे खिड़की पर गिरने के लिए मचल रहे थे, पर नताशा नहीं थी, नताशा कहाँ हो तुम? उसने कहा “अच्छा अब हरसिंगार से नहा लेना, पर आ जाओ” तिल भी नहीं बनाऊँगा पर आ जाओ?” उसकी व्यग्रता बढ़ती जा रही थी, उसके शरीर पर लाखों चींटियाँ रेंगने लगी थी। उससे अब ये घुटन बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी, नताशा आ जाओ, आ जाओ।”

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पर नताशा नहीं आ रही। आखिर नताशा चाहती क्या थी? आज जब वह है नहीं तो वह उसे महसूस कर रहा है, नताशा जब उससे मिली तो संभवतया अपने जीवन में एक टूटन के स्तर पर थी। वह जीवन के रंगों को महसूस नहीं कर पा रही थी। वह जीना तो चाहती थी पर जीवन उसकी मुट्ठी से निकल रहा था। ऐसे में उसका आगमन इस नकली नताशा के लिए वरदान सा साबित हुआ। उसके कंधे का उसे सहारा मिला और उसने टूटन के बाद समेटना सीखा। देह को समेटा, खुद को समेटा, जैसे उसने अपने जीवन के हर क्षण को समेटा। वह टूटन से उबरी, उसने देह के माध्यम से अपने अस्तित्व को सँवारा। नायक को भी उसका अस्तित्व वापस दिया। जीवन के कुछ क्षण बिताने के बाद, जैसे अपनी धरोहर को वापस अपने पास पाने के बाद, उसे अहसास होने लगा कि यह उधार का प्रेम है। और इस उधार के प्रेम पर वह अधिक दिन नहीं जी सकती, उसे जीना होगा, अपने प्रेम को, उसे जीना होगा अपनी देह को। आत्ममुग्धता के क्षणों में जब वह अपनी देह को देखती तो जैसे वह पहचान ही न पाती खुद को।

वह समझ ही नहीं पाती कि आखिर क्यों उसने अपनी देह को इस प्रकार समर्पण के लिए विवश कर दिया। पर शायद वह समय के अनुसार ही रहा होगा। पर अपनी देह और अस्तित्व को वापस पाने के बाद उसका अस्तित्व उसे कचोटने लगा था और इस उधार की जिंदगी से बाहर निकलने पर विवश करने लगा था। वह असली नताशा को खोजने लगी थी। जो चली गई थी, कहाँ, ये नहीं पता, क्यों ये नहीं पता। अंततः कुछ दिनों की मेहनत के बाद शायद उसने असली नताशा को खोज ही लिया। नायक के पागलपन की चित्रावली प्रस्तुत की। चूँकि वह नायक की चित्रावली की असली नायिका थी तो उसके मन का उछाह उसे नायक के पास जाने के लिए प्रेरित भी कर रहा था। शायद नायिका की अति महत्वाकांक्षा और नायक के फक्कड़पन के कारण उत्पन्न असंतुलन का परिणाम था रिश्तों का यह मोड़। नताशा ने नकली नताशा को अपनी पूरी कहानी सुनाई, नायक का टूट कर प्रेम करना, देह को अपनी ही मुट्ठी में बाँधना, देह को अपने अनुसार ढालना, सब कुछ। हाँ, वह ही थी जिसे नायक ने गढ़ा था पर उसने जैसे नताशा के अस्तित्व पर ही मकड़ी की तरह जाल बन दिया था। नताशा जो वास्तविक जीवन में भी नायिका ही थी, वह केवल उसी के रंगों में कैद होकर नहीं रह सकती थी, उसे भी जीनी थी अपनी जिंदगी, बिस्तर के कोनों पर ही नहीं उसे अपने सौंदर्य को नायक के कैमरे और नायक के कमरे से बाहर भी विस्तारित करना था। अपने स्त्रीत्व का विस्तार करना था। नायक यह समझ नहीं रहा था तभी एक दिन वह घर के हर कोने को रोता छोड़कर चली आई थी। नायक के शक से दूर, नायक के संदेह से दूर। या कहें नायक से दूर।

वह खो गई थी रंगों की दुनिया में, वह खो गई थी फोटो शूट की दुनिया में। उसे अपने स्त्रीत्व को केवल नायक तक ही सीमित कर देना उचित नहीं लग रहा था। जो उस पर नित नए संदेह करने लगा था, तन मन और आत्मा से समर्पण के बाद भी नायक द्वारा खींची गई शक और लक्ष्मण रेखा उसे इस संबंध से बाहर निकलने के लिए जैसे उकसा रही थी। और जिस दिन नायक का शक अपनी चरम सीमा पर गया उसी दिन घर को रोता बिलखता छोड़कर अपनी आँखों में मुक्ति के आँसू लेकर वह निकल आई थी। पर नायक, वह, वह तो जैसे नताशा गढ़ने लगा था, यह उसे पता न था और शक और संदेह त्याग कर अब केवल समर्पण का पर्याय बन गया था ये भी उसे पता न था। इस नकली नताशा ने नायक के भीतर के शक को जैसे एब्सोर्बर बनकर खुद में एब्सोर्ब कर लिया था और वह नीलकंठ जैसी हो गई थी। जहर निकाल चुकी थी, देह की अँधेरी गुफाओं से बाहर निकल चुकी थी और नायक को शक की कंदराओं से बाहर निकाल कर उसे एक आम इनसान बना चुकी थी। अब वह इस उधार के खाते में अपने जीवन की बैलेंस शीट नहीं बनाना चाहती थी। उसे अब एक कोरी स्लेट चाहिए थी जिससे वह अपने जीवन को दोबारा से लिख सके, और वह इस उधार के प्रेम पर नहीं हो सकता था। वह ले आई थी नताशा को वापस, अपने सुधरे हुए नायक के पास। अपने भीतर की स्त्री को और अधिक वह मार नहीं सकती थी, इसलिए इस प्रेम कथा का पटाक्षेप तो करना ही था, प्रेम को भी उसके अंत तक पहुँचाना ही था, तभी दोनों नताशा ही जैसे एक दूसरे के गले लगकर रोने लगी। उन आँसुओं में क्या था, ये उन दोनों को ही नहीं पता था, पर जो भी था उसने जैसे उन दोनों के हर क्षण की कड़वाहट को बहा दिया और बह गया शक, पूर्वाग्रह, सब कुछ। बच गया तो केवल प्रेम। जो केवल नताशा का था और नकली नताशा देह की अँधेरी गुफाओं से बाहर निकलकर अपने जीवन को जीने जा रही थी। देह के समर्पण का उसे कोई पछतावा नहीं था। आज वह कोरा कागज बन गई थी, नायक अपनी नताशा के पास और इसके पास अपनी देह, अपना शरीर और अपनी पहचान।

इधर नायक के मोबाइल पर संदेश आ रहा है, उस पूरे कमरे में साँप जैसे चल रहे हों, वैसा लिजलिजापन छा रहा है और नताशा तो आ ही नहीं रही है। तभी कमरे में कोई आता है, उसकी देह एक चिरपरिचित सुगंध से महक उठती है। नताशा, नहीं तुम नहीं, तुम कहाँ से, फिर मेरी नई नताशा कहाँ है? तुम नहीं, नहीं नहीं तुम एक बार और नहीं, तुम नहीं।

उसकी देह के रोम-रोम में समाई वह गंध उसे खुद में समेट कर समर्पण हेतु विवश करने की तैयारी में थी। वह विवश होता जा रहा था। उसे वह अपने वश में करती जा रही थी, परदे मचल रहे थे, और कैमरा हतप्रभ सा था, आज किसी ने कोई भी चादर उस पर नहीं डाली है। क्या आज वह उनकी रेखाओं को अपनी निगाहों में समेट ले? आज उससे कोई कुछ कह क्यों नहीं रहा था? चादरों में एक होती परछाई ने बस कैमरे से इतना ही कहा “आज भ्रम नहीं है, इसलिए तुम पर चादर नहीं है।”

नायक के मोबाइल की स्क्रीन पर दोपहर से ही एक संदेश उभर रहा है “आज से कैमरे पर चादर की जरूरत नहीं होगी, मेरे मित्र मेरे प्रयाण में ही तुम्हारा कल्याण है।”

इधर रात की रानी, हरसिंगार, और मेरा गुलमोहर एक नई कथा की प्रतीक्षा में है, क्या इस नताशा के साथ भी वे रूहों की रूमानियत के चरम पर पहुँचेंगे?

गुलमोहर को तो इंतजार है, और हरसिंगार, मत पूछिए उसकी कलियाँ खिलकर फूल बनने लगी हैं, सेज जो कल अधूरी छूटी थी, फिर से सजने लगी है, और नायक की देह में नताशा की देह घुलने लगी है।

और मेज पर से काजल, आईलाइनर सब कुछ गिरने लगा है।

कैमरा खुलकर इन लम्हों को जीने लगा है…।

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