हिंदू धर्म में कलावा हाथ में बांधना शुभ माना गया है। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक “कलावा” संकल्प, रक्षा और विश्वास का प्रतीक माना गया है।

धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक व्यक्ति पर त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश एवं त्रिदेवियां- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कलावा बांधने से कृपा बनी रहती है।

इसी कारण हिन्दू धर्म की पौराणिक कहानियों में तमाम “प्रसंग” आए हैं। जैसे इंद्रदेव प्रसंग , राजा बलि और माँ लक्ष्मी , संतोषी माँ सम्बंधित प्रसंग , यम और यमुना सम्बंधित प्रसंग , कृष्ण और द्रौपदी सम्बंधित प्रसंग , यम और यमुना सम्बंधित प्रसंग।

इन सभी पौराणिक कहानियो में रक्षा के लिए हाथों में कलावा बाँधने का प्रसंग है।

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यद्धपि भारत में जिस भावना से रक्षाबंधन आज मनाया जाता है वह पैदा हुई मुगल साम्राज्य में। जब सन 1535 के आस पास चित्तौड़ पर गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने आक्रमण कर दिया।

चित्तौण के राजा राणा संगा की पत्नी रानी कर्णावती को यह लगने लगा कि उनका साम्राज्य गुजरात के सुलतान बहादुर शाह से नहीं बचाया जा सकता तो उन्होंने पहले से ही चित्तौड़ के दुश्मन मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजी और एक बहन के नाते मदद माँगी।

मुगलों को खलनायक बनाने के प्रयास में यह इतिहास दबा दिया गया कि मुगल बादशाह हुमायूँ अपनी सेना लेकर कर्णावती की मदद के लिए गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह से लड़ने के लिए निकल पड़ा।

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पर हुमायूँ के पहुँचने के पहले ही गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर विजय प्राप्त कर ली और रानी कर्णावती को जौहर करना पड़ा।

मुगल बादशाह हुमायूँ को जब पता चला कि उनकी मुहबोली बहन रानी कर्णावती ने जौहर कर लिया और वह मृत्यु को प्राप्त हुईं तब उनको बहुत दुख हुआ और उन्होंने अपनी बहन का बदला लेने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण करके सुल्तान बहादुर शाह को परास्त किया और हुमायूं को विजय मिली तथा उन्होंने चित्तौण का पूरा शासन रानी कर्णवती के बेटे विक्रमजीत सिंह को सौंप दिया।

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इतिहास से स्पष्ट है कि तब सांप्रदायिकता नहीं थी , वर्ना एक मुसलमान राजा हुमायूँ , एक हिन्दू रानी कर्णावती के लिए एक मुसलमान राजा सुल्तान बहादुर शाह से क्युँ लड़ता ?

ध्यान दीजिए कि महाराणाप्रताप जिनका आज सांप्रदायिकरण किया जाता है वह इन्हीं रानी कर्णावती के पौत्र अर्थात विक्रमादित्य सिंह के पुत्र थे जिनको हुमायूँ ने चित्तौण का राजपाट वापस सौंपा।

भारत में रक्षाबंधन की शुरुआत पारंपरिक रूप से इसके बाद ही शूरू हुई। मगर इसके भाव को बदलकर इसे पूरी तरह धार्मिक बना दिया गया , सही भाव तो तब होता जब हिन्दू बहनें अपने मुसलमान भाईयों को राखी बाँधती।