स्वर व्यतीत कदापि नहीं हुएसमय-तार बजा कर जो जगे,रँग गई धरती अनुराग से,गगन में नवगुंजन छा गया। READ हमारी घाटी | विश्वनाथ-प्रसाद-तिवारी